Saturday, August 27, 2011

                                     लोमड़दास ने माफी मांगी

            लोमड दास के परिवार को चंपक वन में आए हुए अभी कुछ ही दिन हुए थें। लोमड दास बातचीत करने में बहुत चतुर था। मीठी-मीठी बातें करके उसने कुछ समय में ही चंपक वन के सब जानवरों को पटा लिया। उसने बताया था कि सुंदर वन के जानवरों ने उसका घर जला डाला था।
            एक दिन वह चीकू खरगोश के घर गया और बोला, ''चीकूजी, बच्चे को बुखार गया है। डाक्टर से दवा लानी है, लेकिन मेरे पास पैसे नहीं हैं। यदि तुम कुछ पैसे उधार दे देते तो...''
            ''हाँ-हाँ, क्यों नहीं। ये लो रुपए। बच्चे का ठीक से इलाज कराना'' चीकू ने रुपए देते हुए कहा।
            दूसरे दिन शीतल हिरनी, तीसरे दिन निक्कू बंदर और चौथे दिन टिक्कू बिल्ली के यहाँ से भी लोमड दास बच्चे की बीमारी का बहाना बनाकर उधार ले आया।
            १०-१२ दिन तक लोमड दास से मुलाकात नहीं हुई तो चीकू खरगोश, शीतल हिरनी, निक्कू बंदर एवं टिक्कू बिल्ली सभी ने मिल कर उसके घर जाने का विचार बनाया।
            वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि लोमडतो गाना गुनगुनाते हुए अपने घर के काम में लगी है और उसके दोनों बच्चे सुस्सू, सस्सी आंगन में उछल-कूद मचा रहे हैं।
            '' लोमडरानी, अब कैसा है तुम्हारा बच्चा?'' शीतल हिरनी ने पूछा।
            ''बच्चे को क्या हुआ, दीदी! वह तो बिल्कुल ठीक है।'' लोमडआश्चर्य से बोली।
            ''लोमड दास ने बताया था कि वह बीमार है।'' चीकू खरगोश ने कहा, ''इसलिए हम सब देखने आए हैं।''

            निक्कू बंदर को सुबह बजे की गाडसे चमेली वन जाना था। साथ चलने के लिए लोमड दास को निक्कू बंदर के घर पर पहँुचना था। पर १० बजे तक भी वह नहीं आया तो निक्कू को चमेली वन जाने का अपना कार्यक्रम रद्द करना पड
            लोमड दास जिससे भी वायदा करता, उसे कभी भी पूरा करता और ही किसी का उधार वापस करता। उसके इंतजार में किसी की गाडछूट जाती तो किसी का जरूरी काम ही बिगड  जाता।
            धीरे-धीरे चंपक वन के सब जानवर लोमड दास की झूठ बोलने की इस आदत को जान गए। उन्होंने एक सभा की। सभी ने विचार किया कि लोमड दास को झूठ बोलने वायदा-खिलाफी के लिए मजा चखाया जाए। ''मगर कैसे?'' शीतल हिरनी बोली।
            ''ऐसा करते हैं, उस पर झूठ बोलने व उधार वापस न करने के लिए मुकदमा चलाते हैं।'' निक्कू बंदर ने सुझाव दिया।
            ''नहीं, मेरा परिचित टीटू बिल्ला पुलिस में है। उससे कह कर २-४ डंडे लगवा देते हैं और थाने में बंद भी करा देते हैं।'' टिक्कू बिल्ली बोली।
            ''यह ठीक रहेगा।'' चीकू खरगोश ने ताली बजाई, ''२-४ दिन जेल की चक्की पीसेगा तो बच्चू की अक्ल ठिकाने आ जाएगी।''
            ''नहीं, मैं आप लोगों के सुझाव से सहमत नहीं हूं।'' शीतल हिरनी ने गर्दन हिलाई।
            ''मेरे विचार से तो लोमड़दास की एक ही सजा है कि कल से चंपक वन का कोई भी जानवर उससे नहीं बोलेगा और न ही कोई उसकी सहायता करेगा।''
            ''यह ठीक है।'' सबने शीतल के सुझाव को मान लिया।
            चंपक वन के सब जानवरों ने लोमड दास से बोलना बंद कर दिया। वह जिससे भी बात करता, कोई उत्तर न मिलता। जिधर भी जाकर बैठता, सब चुप हो जाते।
            एक दिन शीतल हिरनी व चीकू खरगोश प्रातः भ्रमण कर के लौट रहे थे। अचानक उन्हें किसी के चीखने की आवाज सुनाई पड ी। वे दोनों आवाज की ओर बढ े। देखा, ४-५ लोमड  किसी को पीट रहे हैं। थोड ा और पास जाने पर चीकू बोला, ''अरे, ये तो अपने लोमड दास को पीट रहे हैं।''
            ''अच्छा...चलो, जल्दी चलो।'' शीतल हिरनी ने तेज-तेज चलते हुए कहा। पास पहुँच कर चीकू और शीतल ने देखा कि लोमड़दास को पीटने वाले लोमड  चंपक वन के नहीं हैं। शीतल को गुस्सा आ गया। उसने लोमड ों को घूरा, ''तुम लोग कहाँ से आए हो और पेड  से बांधकर इसे क्यों पीट रहे हो?''
            ''हम लोग सुंदर वन से आए हैं।'' एक लोमड  बोला।
            ''हमें इसकी बहुत दिनों से तलाश थी।'' दूसरा बोला।
            ''इस पर हमारा व सुंदर वन के बहुत-से जानवरों का कर्ज है। इसलिए अपने परिवार के साथ यह भाग आया है।'' लोमड दास के गाल पर एक झापड  रसीद करते हुए तीसरा लोमड  चीखा।
''लेकिन इसने तो बताया था कि सुंदर वन के जानवरों ने इसका घर जला डाला है।'' शीतल ने कुछ सोचते हुए कहा।
            ''यह झूठ बोलता है। इसके घर को तो किसी ने छुआ तक नहीं।'' पहले लोमड  ने बताया।
            ''झूठ बोलना, कर्ज न लौटाना और वायदाखिलाफी तो इसके लिए मामूली बातें हैं।'' दूसरे लोमड  ने गुस्से से ऑंखें लाल करते हुए कहा।
            ''अच्छा...तो यह बात है।'' शीतल ने दांतों तले अंगुली दबा ली, ''ठीक है, मारो इसे।''
            ''अगर इसने हमारा कर्ज नहीं लौटाया तो हम आज इसे मार डालेंगे।'' चारों लोमड ों ने अपने हाथों में डंडे उठा लिए।
            यह देख कर पेड  से बंधे लोमड दास की घिग्घी बंध गई। वह डर से कांपने लगा।
            ''अच्छा, रुको, तुम लोगों के कितने रुपए हैं, इस पर?''
            'सौ रुपए।'
            ''ये लो रुपए और इसे छोड  दो।'' जेब से रुपए निकाल कर देते हुए शीतल हिरनी बोली, ''आओ चीकू, चलें।''
            चलते-चलते चीकू ने पूछा, ''शीतल दीदी, आपने ही तो चंपक वन के सभी जानवरों से लोमड दास से बोलने व सहायता करने के लिए मना किया था।''  ''हाँ, किया था। फिर...?''
            ''तो फिर आपने क्यों छुड़ाया उसे?'' चीकू बोला।
            ''क्योंकि दूसरे वन के लोमड  उसे हमारे चंपक वन में आकर पीट रहे थे। यह मुझसे सहन नहीं हुआ।'' शीतल और चीकू बात कर ही रहे थे कि लोमड दास भागा-भागा आया, ''मुझे क्षमा कर दो, शीतल दीदी।'' वह उनके पैरों पर गिर पड ा, ''आप ने बचा लिया वरना आज वे मुझे जान से मार डालते।''
            शीतल हिरनी चीकू का हाथ थामे चुपचाप चलती रही तो लोमड दास रो पड ा, ''आपकी नाराजगी मुझे मालूम है। मैं वायदा करता हूँ कि भविष्य में कभी झूठ नहीं बोलूंगा।''
            ''और जो सबसे उधार ले रखा है, उसका क्या करोगे?'' चीकू खरगोश ने हँसते हुए पूछा।
            ''सबके पूरे-पूरे पैसे वापस करूँगा। बस, एक अवसर और दो मुझे।''
            सचमुच ही कुछ दिन में लोमड दास ने सबका उधार चुकता कर दिया। अपनी बुरी आदतें भी छोड  दीं तो चंपक वन के जानवरों ने भी उसके विरोध में किया गया फैसला वापस ले लिया।
सजानवीन बहुत शरारती था। प्रत्येक दिन एक नए ढंग की शरारत करना उसका शौक बन गया था। स्कूल के सभी लड के उससे डरने लगे थे। कई लड कों की तो नवीन की शरारतों के कारण घर पर भी पिटाई हो चुकी थी।
            अभी कुछ दिन पहले की बात है। राजू स्कूल से बस्ता लेकर घर पहुँचा। पिताजी ने पाठ सुनाने को कहा और जैसे ही उसने बस्ता खोला कि झट से मेढक उनके चश्मे से टकराया। बस, पिताजी के दो तमाचे उसके लगे -
            ''स्कूल में पढ ने जाता है या ऊधम मचाने,'' पिताजी ने क्रोध में भरकर कहा।
            पिताजी की डांट खाकर वह मन ही मन नवीन को कोसने लगा।
            स्कूल जाकर जब उसने नवीन से कहा तो पहले तो वह मुस्कराया, फिर बोला, ''अबे साले, मुझे क्या तनखवाह देते हो, जो तुम्हारे बस्ते में मेढक पकड  कर रखूंगा! बैठ गए होंगे कहीं बस्ता रखकर। बरसात का मौसम है। बस मेढक मौका पाकर घुस गया होगा।''  सुनकर राजू चुप रह गया, क्योंकि बातों में उससे जीतना मुश्किल था। मगर जिस तरह उसका बस्ता कसा रहता है उसमें मेंढक तो क्या कोई छोटा कीड़ा भी नहीं घुस सकता था। उसने जाकर मास्टरजी से शिकायत की। मास्टरजी ने अलग बुलाकर नवीन को समझाया।
            उनके समझाने का परिणाम यह हुआ कि एक दिन नवीन ने डाकिए से बीच में ही मास्टरजी का पत्र ले लिया। घर लाकर खोला। एक चूड ी में रबर फंसाई फिर उसमें एक पतली लकड ी डाल कर मोड कर रख दिया। चूड ी को कागज की तह में फंसा, लिफाफा बंद कर दिया।
            दूसरे दिन वही पत्र मास्टरजी की मेज पर था। जैसे ही उन्होंने वह खोला कि किरकिर...की आवाज सुनकर लिफाफा हाथ से छूट पड ा। कक्षा के सभी छात्र हँस पड े। अध्यापक ने हेडमास्टर से शिकायत की। उन्होंने नवीन को बहुत समझाया। भविष्य में ऐसा करने पर कठोर दंड का भय भी दिखाया, मगर उसकी हरकतों में फिर भी कोई कमी नहीं आई।
            एक शरारत तो उसका रोज का खेल बन चुकी थी। स्कूल से घर को आते समय रास्ते में एक बगीचा पड ता था। वह साइकिल से वहाँ उतरता। बाग के बीच में होकर गुजरती पगडंडी में एक पतली नाली खोदता, उसमें लंबे-लंबे कांटे सीधे खड े करके थोड ा-सा मिट्टी से ढंक देता। फिर अपनी साइकिल उठा, किसी अन्य पेड  के नीचे ऐसे जा बैठता, जैसे थका हुआ सुस्ता रहा हो।
            वहाँ से कोई साइकिल गुजरती, कांटा चुभता और फिस्स... साइकिल में पंक्चर हो जाता। बेचारा साइकिल वाला पैदल-पैदल जाता तो नवीन उसे देखकर मन में खुश होता। फिर उससे कहता, ''क्यों मियां, देखकर नहीं चलाते। साइकिल हाथ में आ गई तो आँखें ऊपर करके चलते हो।''
            राहगीर गुस्से से तिलमिला उठता। मगर इससे पहले कि वह कुछ कहे, नवीन अपनी साइकिल पर चढ कर दौड  जाता। उससे सभी परेशान थे, पर किसी के पास कोई हल न था। सुबह के साढ़े नौ बजे थे। नवीन जल्दी-जल्दी तैयार हुआ। साइकिल उठा कर स्कूल को चल दिया। उसकी परीक्षा का पहला दिन था। जल्दी-जल्दी पैडलों पर पैर मारता हुआ जैसे ही वह आधे रास्ते से गुजरा कि फिस्स...साइकिल में पंक्चर हो गया। उसे याद आया कि कल इसी जगह उसने कांटे लगाए थे, लेकिन जल्दी में वह भूल गया था।
            उसने घड ी देखी। दस बजने में सिर्फ पंद्रह मिनट ही रह गए थे। वह कांप उठा, 'आज परीक्षा के पहले दिन ही देर हो गईं। और देर होने पर अध्यापक भी तो नहीं घुसने देंगे।' वह साइकिल लेकर पैदल दौड ने लगा।
            तभी पीछे से एक साइकिल वाला आया। उसने मुड  कर देखा तो उसे पहचान कर डर गया। साइकिल वाला वही था, जिसकी कल साइकिल फिस्स हो जाने पर उसने चिढ ाया था। पास आकर साइकिल सवार ने साइकिल की चाल धीमी कर दी। वह सहम कर एक तरफ हट गया। उसे डर था कि कहीं यह कल वाली बात पर पिटाई न कर दे।
            ''कहाँ जाना है, भैयाजी?'' साइकिल वाला नवीन के पास आकर मुस्कराया।
            ''स्कूल,'' डरते हुए नीवन ने जवाब दिया।
            ''स्कूल जल्दी तो नहीं पहुँचना?''
            ''दस बजे से मेरी परीक्षा शुरू होगी।''
            ''अब तो दस में सिर्फ पांच मिनट बाकी हैं।''
            यह सुनकर उसके पसीने छूट गए। गरदन झुकाए वह रो पड ा।
            ''अरे, अब रोता क्यों है-जल्दी से मेरी साइकिल पर बैठ जा।''
            कोई चारा न देखकर, वह अपराधी की तरह गरदन झुकाए बैठ गया। स्कूल पहुँचा तो सवा दस बज रहे थे। अध्यापक पहले ही चिढ े हुए थे। बहुत खुशामद के बाद परीक्षा भवन में घुसने दिया। जल्दी से पेपर लेकर अपनी मेज पर पहुँचा। पेन निकालने को जैसे ही जेब में हाथ डाला कि बिजली जैसा एक झटका  लगा। जेब में पेन नहीं था। शायद जल्दी में कहीं गिर गया था। वह सन्न रह गया। उसने मास्टरजी से कहा, ''मास्टरजी, मेरा पेन रास्ते में गिर गया है। अब कैसे लिखूं?''
            ''देख लो, अगर किसी पर दो पेन हों तो,'' कहकर मास्टर जी मुस्करा दिए। लड के भी बहुत दिनों से इस मौके की तलाश में थे। किसी ने भी उसे अपना पेन नहीं दिया।  हार कर उसने अपने अध्यापकजी के पैर पकड़ लिए और रो पड ा।
            ''अरे तेरा ही कोई साथी तुझे पेन देने को तैयार नहीं तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ?'' पैरों पर से हटाने की कोशिश करते हुए वह बोले।
            मगर उसने पकड  ढीली न की और रोता रहा।
            अंत में वह अपना पेन निकाल कर देने लगे।
            ''आप रहने दीजिए जी,'' कहकर राजू ने अपना पेन उसकी तरफ बढ ा दिया।
            परीक्षा की समाप्ति पर उसने सभी अध्यापकों व साथियों से क्षमा मांगी। मगर सभी छात्र यह सोच रहे थे कि जरूर इसमें भी नवीन की कोई शरारत करने की चाल होगी। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि वह इतनी आसानी से हरकतें छोड  देगा। मगर उस दिन से उसने सचमुच कोई शरारत नहीं की। उसे सबक जो मिल गया था।





                                            अनोखा दण्ड

            बहादुरसिंह नाम का एक लड़का था। नाम के अनुरूप ही वह निडर एवं साहसी भी था। उसके घर की माली हालत ठीक नहीं थी। कच्ची मिट्टी को थोप-थोप कर बनायी हुई फूटी-सी उसकी झोंपड ी थी। उसी में अपने माता-पिता के साथ वह रहता था।
            एक दिन वह अपने साथियों के साथ खेल रहा था। तभी बच्चों ने देखा कि घोड े पर सवार महाराजा रणजीतसिंह उधर ही आ रहे हैं। उसके साथी महाराजा को देखकर छुपने के लिए इधर-उधर दौड ने लगे किन्तु बहादुर ने उन्हें रोक लिया। जैसे ही महाराज रणजीतसिंह की सवारी वहाँ से गुजरी बहादुर को जाने क्या सूझा कि जोर-जोर से चिल्लाने लगा-रणजीतसिंह काना, रणजीतसिंह काना। बहादुरसिंह की देखादेखी और भी दो-चार बच्चे उसके साथ चिल्लाने लगे।
            महाराजा ने एक बार पीछे मुड कर नंग-धडं ग धूल उड ाते बच्चों को देखा फिर आगे बढ  गये।
            अगले दिन महाराजा ने नगर में मुनादी करवाई कि सभी माँ-बाप अपने बच्चों को लेकर दरबार में उपस्थित हों। जो नहीं आयेगा उसे कठोर दण्ड दिया जायेगा।
            मुनादी सुनकर नगरवासी बहुत घबराये। जाने क्या बात है जो महाराजा ने ऐसी मुनादी कराई है। जरूर कुछ-न-कुछ गड बड  की होगी बच्चों ने। खैर, डरे-सहमे सभी नगरवासी अपने-अपने बच्चों को लेकर दरबार में पहुँच गये।
            तभी महाराजा रणजीतसिंह ने प्रवेश किया और राजगद्दी पर आकर बैठ गये। पहले उन्होंने टेढ ी नजर से नगरवासियों को देखा और कड कदार आवाज में पूछा-'कोई बकाया तो नहीं रहा आने को?'
            सभी ने डरते-डरते अपने इर्द-गिर्द घूम कर देखा और नकारात्मक उत्तर दे दिया। तो महाराज ने पूछा-
            'तुम लोगों को पता है कि मैंने तुम्हें क्यों बुलाया है?'
            'नहीं साब, कोई गलती हुई महाराज हमसे?' नगरवासी गिड गिड ाये।
            'तो सुनो, परसों हम घोड े पर सवार होकर जा रहे थे। तभी कुछ बच्चों ने कहा-'रणजीतसिंह काना। बताओ वो कौन-कौन बच्चे थे?'
            कड कदार आवाज सुनकर सभी पसीने में लथपथ हो गये और अपने बच्चों से पूछने लगे। बच्चों में भी आपस में खुसुर-पुसुर होने लगी।
            थोड ी देर में तीन-चार बच्चे मंच पर पहुँच गये और तखत पर पहुँचते ही रोने लगे कि हमने तो बाद में कहा था पहले तो इस बहादुरसिंह ने कहा था।
            'क्यों वे लड के, क्या ये सच कह रहा हैं?' 



'हाँ महाराज ये सच हैं'-बहादुरसिंह ने निर्भीकता से उत्तर दिया।
            'ठीक है तुम सब जाओ और इस लड़के के बाप को इधर भेजो।' महाराजा ने फिर उसी रौब में आज्ञा दी।
            थर-थर काँपते हुए बहादुर के माँ-बाप महाराजा के सामने गिड गिड ाने लगे, 'महाराज, बालक है ये। इसकी गलती के लिए हमें जो चाहें सजा दे दीजिए। हम तैयार हैं सजा भुगतने को।'
            'ठीक है। तुम सजा भुगतने के लिए तैयार हो तो सुनो-आज से ये लड का यहीं रहेगा और इसके पालन-पोषण, पढ ाई-लिखाई का सारा खर्चा राजकोष देगा। जो लड का इतनी कम उम्र में इतना निडर और साहसी है वह भविष्य में बहुत कुछ करेगा। इसे दरबार में नौकरी दी जायेगी।'
            सुनकर बहादुरसिंह के पिता, महाराजा के पैरों में गिर पड े, सारे नगरवासी भी महाराजा रणजीतसिंह के इस अनोखे दण्ड पर मुग्ध हो अपने-अपने घर चले गये।




                                        अमर ज्योति

            सन् उन्नीस सौ पैंसठ की एक शाम हर तरफ शान्ति का वातावरण था, किसी तरह की कोई आशंका नहीं थी कि तभी पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। इस अचानक हुए हमले ने भारतीय सेना को चौंका दिया। छुटि्टयाँ बिताने अपने-अपने घर गये सैनिकों पर तुरन्त वापस आने के आदेश प्रेषित किए गये।
            छुटि्टयाँ बिता रहे भारतीय सेना के ही एक मेजर को जब सूचना मिली तो प्रस्थान की तैयारी कर उन्होंने माँ को प्रणाम कर पैर छूए। माँ का ममत्व जाग उठा, आँखों में जल-कण झलक आये, और उन्होंने बेटे को सीने से लगा लिया। मेजर का गला भी रूँध गया, पर तुरन्त ही मातृ-भूमि का स्मरण हो आया।
            युद्ध-भूमि को जाते हुए पुत्र के सिर पर हाथ रख, आशीर्वाद देते हुए मां ने कहा-''बेटे, इस समय राष्ट्ररक्षा ही सर्वोपरि कर्त्तव्य है प्रत्येक भारतीय का, जाओ और अपने कर्त्तव्य को दृढ़ता से पालन करो। याद रहे-भारतीय परम्परा सीने पर गोली खाने की है पीठ पर नहीं।''
            युद्ध की विभीषिका भीषण रूप से फैलती जा रही थी। इच्छोगिल नहर का मोर्चा भारतीय सेना के लिए चुनौती की दीवार बना खड ा था। प्रश्न उठा-इस अभेद्य दीवार को तोड ने का उत्तरदायित्व कौन संभालेगा?
            कार्य आसान न था, साक्षात् मौत के साथ जूझना था। पर वीर कभी मौत के भय से रुके हैं! तुरन्त एक वीर ने इसका दायित्व स्वीकार कर लिया। ये गांव से आये हुए वही मेजर थे।
            मौत की परवाह किए बगैर मेजर ने मोर्चा संभाल लिया और धीरे-धीरे आगे की तरफ बढ ने लगे। सूइंग-सूइंग'-धड ाम-धड ाम-का दिल दहलाने वाला शोर कानों के पर्दों को फाड ने की कोशिश कर रहा था।
            मेजर पर देशभक्ति का जोश पूरी तरह छाया हुआ था। मौके का इन्तजार किया जाय, इतना समय था भी नहीं इसलिए वे धड ाधड  गोलाबारी कराते हुए, दुश्मन के टैंकों को ध्वस्त करते आगे बढ  रहे थे कि तभी दुश्मन की एक साथ कई गोलियां सन-सनाती हुई आई और मेजर के हाथ व पेट में घुस गईं मगर माँ के शब्द ''भारतीय परम्परा सीने पर गोली खाने की है पीठ पर नहीं'' ज्वलन्त प्रेरणा दे रहे थे। वे चोट की परवाह किए बगैर आगे बढ ते रहे और गोलियाँ आ-आकर उनके सीने में घुसती रहीं। स्थिति को समझते हुए उनके पीछे हटने का आदेश जारी किया गया। पर कदम रुके नहीं, दुश्मन के सारे टैंकों को ध्वस्त कर, विजयश्री को गले लगाकर ही दम लिया उन्होंने।
            तुरन्त ही अमृतसर के सैनिक अस्पताल में लाया गया उन्हें। पर अब तक पूरा सीना गोलियों से छलनी हो चुका था। रुंधे गले से अधिकारियों ने पूछा-''आपकी कोई अन्तिम इच्छा है?''
            गोलियाँ सीने में कसक रही थीं पर मेजर ने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए कहा-''हाँ है, मेरी माँ तक संदेश पहुँचा देना- तुम्हारे बेटे ने गोलियां सीने पर ही खाई हैं, पीठ पर नहीं।''
            जानते हैं ये बहादुर कौन थे? ये भारतीय सेना के आफीसर-मेजर आशाराम त्यागी थे, जिन्होंने माँ के वचनों का पालन करते हए अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा दी।
            दीपक बुझ गया पर उसकी अमर ज्योति युगों तक देश-भक्तों को राह दिखाती रहेगी।



                                           मेहनत का फल

            नवीन की नित नई शरारतों से लगभग सभी परेशान हो उठे थे। एक दिन छुट्टी होने से थोड़ा पहले उसने सुरेश के बस्ते में ढक्कन खोलकर स्याही की दवात रख दी। परिणामस्वरूप जैसे ही सुरेश ने बस्ता कन्धे पर लटकाया, स्याही गिर पड ी और किताब-कापियां खराब करती हुई उसकी ड्रेस पर बह चली।
            अंग्रेजी के घण्टे में अक्सर पाठ याद न करने के कारण नवीन को मार पड ती, अतः जब अंग्रेजी के अध्यापक पढ ाकर चले जाते तो ब्लैक-बोर्ड पर वह चॉंक से अंग्रेजी के मास्टर जी का टेढ ा-मेढ ा चित्र बना देता जिसमें उनकी नाक को काफी लम्बी बनाकर उस पर 'चोंचू मास्टर' लिख देता।
            गणित के अध्यापक पीटने के बजाय उसे मुर्गा बनाते थे, अतः उनके आने के पहले ही बोर्ड पर मुर्गे जैसा एक चित्र बनाकर नवीन उस पर लिख देता-'मुर्गा मास्टर'।
            कृषि अध्यापक वार्ष्णेय साहब थोड ा कम सुनते थे अतः वह उनके सामने हाथ जोड कर धीरे से अपशब्द कह देता। एक दिन तो गजब ही हो गया। नवीन की किसी शरारत पर वार्ष्णेय साहब ने जैसे ही चांटा मारना चाहा, वह झट से नीचे बैठ गया और उनके दोनों पैरों के बींच अपने कंधे फंसाकर उन्हें ऊपर उठा लिया; पर उनका भार न संभाल सका अतः उनके सहित भरभरा कर गिर पड ा। दानों को काफी चोट आई।
            आखिर उसकी शिकायत प्रधानाचार्य तक पहुँची। एक घंटा बाद ही प्रधानाचार्य का चपरासी हाथ में नोटिस-रजिस्टर लिए प्रत्येक क्लास में घुसता और वहाँ पढ ा रहे अध्यापक से हस्ताक्षर कराकर लौट आता।
            प्रधानाचार्य जी बड े अनुशासनप्रिय थे और अनुशासन भंग करने वाले को कड ी-से-कड ी सजा देने में हिचकते नहीं,, यह बात सभी भलीभाँति जानते थे। उस रोज शाम को सभी अध्यापकों सहित अनिल को भी प्रधानाचार्य जी ने अपने कक्ष में बुलाया था, इतने से ही सब अध्यापक राहत महसूस कर रहे थे कि अब नवीन की शरारतों से मुक्ति मिल जाएगी। छुट्टी की घण्टी बजते ही सब अध्यापक प्रधानाचार्य के कमरे में पहुँच गये। नवीन भी अपने दो-चार ऊधमी साथियों सहित अकड़ा हुआ खड ा हो गया। उसकी इस हरकत पर प्रधानाचार्य जी को गुस्सा तो बहुत आया, पर शांत भाव से उन्होंने उसे अपने पास बुलाया और उसके सिर पर हाथ रखकर पूछा, ''सुनो, बेटे, क्या ये सब सही है तुम अपने गुरूजनों का कहना नहीं मानते और तरह-तरह की शरारतें करते हो?''
            ''देखिए सर, पहली बात तो यह कि दूर से बात कीजिए, दूसरी बात मैं आपका बेटा नहीं हूँ।'' और नवीन ने प्रधानाचार्य का हाथ झटक दिया।
            एक बार फिर गुस्सा पीकर प्रधानाचार्य बोले, ''स्कूल के विद्यार्थी तो हो।''
            ''तो क्या हुआ, क्लास में मैं अकेला ही तो ऊधम नहीं करता। और लड के भी करते हैं, पर सजा मुझे ही दी जाती है।
            ''ठीक है, अगर यही बात है तो कल से तुम्हें कोई सजा नहीं देगा। लेकिन तुम्हारी शिकायत भी अब मुझे कभी नहीं मिलनी चाहिए।'' कहकर प्रधानाचार्य ने अध्यापकों की तरफ देखकर कहा-''नवीन के लिए इस वक्त यही सजा है कि कल से कोई भी इसे दण्ड नहीं देगा, न कुछ कहेगा ही।''
            प्रधानाचार्य की इस अनोखी सजा को सुनकर सब भौचक्के रह गये।
            नवीन तो अकड  ही गया। पूरी छूट पाकर नवीन की उद्दण्डता दिनों-दिन बढ ने लगी। उसके साथी उसे उत्साहित करते और वह ताव में आकर रोज कोई-न-कोई नई शरारत कर बैठता। पहले थोड ा-बहुत पढ ता भी था, अब उसने वह भी बन्द कर दिया। उसकी भरकस कोशिश रहती कि जब वह शरारत करे तो अध्यापक उसे देखें, किन्तु अध्यापक देखकर भी अनदेखा कर देते थे। तब वह चिढ ाने के लिए और ज्यादा शरारतें करता।
            परिणाम यह हुआ कि तिमाही इम्तहान में तो उसे सेकण्ड डिवीजन के नम्बर मिले थे, पर छमाही इम्तहान के नम्बर मिलाने पर थर्ड डिवीजन के भी नहीं रहे। नवीन एकदम घबड ा उठा। उसके जो साथी उसे शरारत करने को उकसाते थे, वही अब उसका मजाक उड ाने लगे-''वाह, वाह, नवीन, तरक्की पर हो, तिमाही के ठीक आधे नम्बर लाये हो छमाही में।''
            दूसरे साथी ने व्यंग्य किया, ''अरे, डबल-गार्ड फर्स्टक्लास (थर्ड) बनेगी। कोई मजाक है।''
            ''नहीं भाई, सालाना इम्तहान में तो क्लास टाप करेगा नवीन।'' तीसरे साथी ने कहा। ''वाह उस्ताद जी, क्लास की कह रहे हैं, मुझे तो लगता है कहीं स्कूल न टाप कर दे।'' गिरीश के इस व्यंग्य पर सभी जोर से ठहाका लगाकर हँस पड़े।
            सुनते-सुनते अचानक नवीन का स्वाभिमान जाग उठा, उसने गुस्से से गिरीश का कालर पकड कर झकझोर दिया, ''तुम लोग ही तो मुझे उकसाते थे ऊधम करने के लिए और अ...अब...ठीक है, अब मैं तुम्हें टाप करके ही दिखाऊँगा।''
            गिरीश को एक ओर ढकेल कर नवीन सीधा प्रधानाचार्य जी के कक्ष में पहुँचा और उनके पैर पकड कर रोने लगा, ''सर, अब मैं समझ गया कि आपने मुझे उस दिन सजा न देकर भी कितनी बड ी सजा दे डाली थी। मैं अपनी गलती के लिए माफी चाहता हूँ...मैं वास्तव में शर्मिंन्दा हूँ, सर...''
            प्रधानाचार्य महोदय ने जल्दी से उसे उठाकर गले से लगा लिया-''शाबाश नीवन, मुझे प्रसन्नता है कि तुमने अपनी गलती स्वीकार कर ली। वास्तव में गलती करना बहुत बड ी बात नहीं है, पर गलती को महसूस कर उसे सुधारा न जाए तो यह अपने आप ही पांव में कुल्हाड ी मारना है। मुझे खुशी है कि तुमने अपनी भूल महसूस की। जाओ और मेहनत से पढ ना शुरू करो। अध्यापक तुम्हारा ध्यान रखेंगे तथा गलती करने पर सजा भी देंगे।''
            ''धन्यवाद, सर !'' कहकर वह कमरे से बाहर आ गया। प्रधानाचार्य के आदेशानुसार दूसरे दिन सभी अध्यापक नीवन की गतिविधियों पर फिर से गौर करने लगे। किन्तु यह क्या ! अब किसी अध्यापक को नवीन की कोई गलती पकड ने का मौका ही नही मिलता था। वे जब भी देखते, नवीन उपनी पढ ाई में ही मगन रहता।
            देखते-ही-देखते समय पर लगाकर उड  गया। वार्षिक परीक्षा शुरू हो गई और कुछ दिन बाद जब' परीक्षाफल आया तो विद्यार्थी और अध्यापक ही नहीं, प्रधानाचार्य तक यह देखकर चकित रह गये कि उस अत्यन्त शरारती लड के नवीन ने स्कूल टाप किया है।
            नवीन के दोस्त ताज्जुब से इसका कारण पूछने लगे तो उसने मुस्कराते हुए कहा, ''दोस्तो, दुनिया में कोई भी काम करना मुश्किल नहीं है, बशर्ते उसे करने का दृढ  निश्चय कर लिया जाए। मैंने टाप करने का निश्चय करके मेहनत से पढ ाई की और सफल भी हुआ।''





                                    रवि की समझदारी
परीक्षा समाप्त हो चुकी हैं क्यों न छुट्टियाँ ननिहाल में बिताई जायें, नानी से कहानियां भी सुनेंगे और मस्ती भी खूब आयेगी- यही सोचकर रवि कल ही यहां आया था। सारे दिन रेलगाड़ी में सफर करने के कारण वह बहुत थक गया था अतः धूप चढ े तक सोता रहा। जब जागा तो तुरन्त ही दिशा-मैदान के लिए खेतों की ओर चल दिया।
            घूमते-घूमते वह काफी दूर निकल गया। थोड ा और आगे जाने पर उसे घण्टा बजने की आवाज सुनाई दी। वह चौंका, यहाँ जंगल में घण्टा कहाँ बजा? वह आवाज की दिशा में आगे बढ ने लगा। तभी करीब पचास मीटर की दूरी पर उसे एक हैण्डपम्प दिखाई दिया, जिसके नीचे एक बहुत मोटा-सा आदमी बैठा था, दो आदमी उसके शरीर से मैल छुड ा रहे थे।
            घर लौटकर उस बात को उसने अपने साथी नवीन को बताया।
            ''सुना तो मैंने भी है कि वहॉं एक बहुत प्रसिद्ध बाबा रहते हैं, वो जो कह देते हैं पूरा होता है''-नवीन ने बताया।
            ''अच्छा। चलो तब तो देखा जाय, मैं भी बाबा से अपने पास होने का आशीर्वाद मांग लूंगा,'' रवि ने हँसकर कहा।
            दूसरे दिन रवि व नवीन उसी जगह पर पहुँच गये। देखा वही मोटा आदमी लकड ी की चौकी पर गद्दा वगैरा बिछाकर पालथी लगाये बैठा है; जिसके चारों ओर पेड ा, लड्डू वगैरा का भोग चढ ाने के लिए स्त्री-पुरुषों की भीड  लगी है। बाबा के आगे एक थाल में धूप-बत्ती का धुआं उठ रहा हैं और थाली दस-बीस और पच्चीस पैसे के सिक्कों से भरी पड ी है। रवि ने सुना कुछ औरतें बाबा से सन्तान-प्राप्ति का वरदान मांग रही हैं।
            रास्ते में रवि ने नवीन से कहा-''बच्चू, मुझे तो कुछ घोटाला लगता है। भला बाबा किसी औरत को सन्तान कैसे दिला सकता है?''
            ''हाँ लगता तो मुझे भी कुछ ऐसा ही है''-नवीन ने रवि का समर्थन किया।
            गांव पहंँचकर वह बात दोनों ने अपने अन्य साथियों को बताई तो उनसे, दोनों को अजीब-अजीब बातें मालूम हुयीं। तब उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि घोटाला जरूर है कुछ, इसका पता जरूर लगायेंगे।
            अगले दिन दोनों फिर पहुँच गये वहीं और बाबा से हाथ जोड  कर बोले-''बाबाजी,, हमें अपना चेला बना लो।''  बाबा ने दोनों को ऊपर से नीचे तक देखा और हँस दिए-''बच्चो, अभी तुम छोटे हो...जाओ खेलो-कूदो।''
            काफी खुशामद के बाद भी बाबा जी राजी नहीं हुआ तो रवि ने एक तरकीब निकाली, उसने बाबाजी के एक चेला श्यामू से दोस्ती कर ली। धीरे-धीरे दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई। बाबा जी के बाहर जाते ही रवि श्यामू के पास पहुँच जाता। श्यामू उसे बाबाजी की विभिन्न चीजें दिखाता। एक दिन श्यामू चुपके से रवि को गुफा के अन्दर ले गया। वहाँ पर रखी चीजों को देखकर रवि एकदम चौंक पड़ा। उसने श्याम के कान में कुछ कहा जिसे सुनकर पहले तो श्याम राजी नहीं हुआ, पर जब रवि ने समझाया कि बुरे काम का फल भी हमेशा बुरा ही होता है तो वह मान गया।
            बाबाजी तखत पर बैठे-बैठे भजन गुनगुना रहे थे कि अचानक सीटी बजाती पुलिस जीप ने वहाँ प्रवेश किया और तुरन्त ही सिपाहियों ने उस जगह को घेर लिया। ग्रामीणों ने पुलिस को देखा तो ''राम-राम कलयुग आ गया, देखो भजन करते महात्माओं पर भी जुल्म होने लगा अब तो''-कहते हुए सबतितर-बितर हो गये।
            जंगल की आग की तरह खबर सारे गांव में फैल गई। ''रवि, कहाँ छुपा है चोरी का माल?''-दरोगाजी ने बाबाजी को सिपाहियों के हवाले करते हुए पूछा। अचानक हुए हमले से वह भी भौचक्का रह गया। दरोगाजी की बात सुनकर बोला-''चोरी का माल? दरोगाजी, किसी ने आपको बहका तो नहीं दिया। राम-राम-राम, भला साधुओं को चोरी से क्या काम !''
            ''चुप रहो हम तुमसे नहीं पूछ रहे,'' दरोगाजी ने रवि की ओर देखा। रवि सिपाहियों को तहखाने में ले गया जिसमें चोरी का माल भरा पड ा था। पुलिस ने सारा माल जब्त कर लिया और साधु रूपी चोर को थाने ले गये।
            जब गांव वालों को असलियत का पता चला तो उन्होंने रवि के साहस की बहुत प्रशंसा की। ''वास्तव में देश को रवि जैसे साहसी एवं सूझबूझ वाले बच्चों की जरूरत है''-दरोगाजी ने बताते हुए रवि को गोद में उठा लिया।

                           
                                        सच्ची पूजा
एक शहर में बड़े ही साधु एवं पुरातन विचारों के एक वृद्ध रहते थे। अपने मकान के कुछ कमरे उन्होंने विद्यार्थियों को किराये पर दे रखे थे। ब्रह्ममुहूर्त में ही बिस्तर त्यागकर, नित्य क्रिया से निवृत्त हो, ईश्वरोपासना के मन्त्रों का उच्चारण करना, ये उनके प्रतिदिन के कार्य का एक प्रमुख अंग था।
            छात्रों को वृद्ध का इस तरह मन्त्रोच्चारण खलने लगा। वे सोचते कि ये बुड्ढा प्रतिदिन हमारी पढ ाई में बाधा डालता है अतः जरूर कोई उपाय करना पड ेगा। यही सोच सबने सलाह की कि कल सुबह जब ये मन्त्रोच्चारण शुरू करें, तभी इन्हें रोकेंगे।
            दूसरे दिन जैसे ही वृद्ध अपने पूजागृह में पहुँचे, योजनानुसार छात्र भी पहुँच गए, क्योंकि उनका विचार था कि बुड्ढा राजी से नहीं मानेगा।
            दरवाजे पर छात्रों को देखकर वृद्ध बहुत प्रसन्न हुए। बोले-''आओ, आओ, बाहर क्यों रुक गये !'' और उन्हें आसन पर बिठा लिया। पूजागृह में पहुँचते ही उनमें से कोई भी कुछ न कह सका बल्कि उन्हें भी वहाँ पूजा में बहुत आनन्द आया। जब छात्र वापस जाने लगे तो वृद्ध ने रोककर कहा, ''बच्चों, शायद तुम लोग कुछ कहने के लिए आये थे। बोलो, चुप क्यों हो?''
            हिम्मत करके एक छात्र ने सब कुछ बता दिया। सुनकर वृद्ध ने मुस्कराते हुए कहा-''बस इतनी छोटी-सी बात से ही परेशान हो गये; अरे, अगर मेरे बोलने से तुम्हारी पढ ाई में बाधा पड ती है, तो मैं चुपचाप पूजा कर लिया करूँगा। परन्तु मेरी इस बात का ध्यान रखना...।'' वृद्ध बीच में थोड े रुके और फिर श्वांस लेते हुए बोले-''याद रखो, ऐसा हर कार्य बेकार है, जिससे किसी के अच्छे कार्य में बाधा पड े, चाहे वह पूजा ही क्यों न हो।''
            छात्र शर्म से सर झुकाये वृद्ध की बातें सुनते रहे। वृद्ध पुनः बोले-''देखो इस वक्त तुम्हारे लिए पढ ाई करना ही पूजा है जो तुम्हें, तुम्हारे लक्ष्य तक पहँुचायेगी। जाओ और अपनी पूजा करो।''
            सुनकर सभी छात्र वृद्ध के चरणों में गिर पड े।





                                             नई शिक्षा-नई दिशा
            पार्क के रंग-बिरंगे फूल हवा के झोंकों के साथ इधर-उधर झूम रहे थे। ऐसे में पूरी कालोनी के बच्चे पार्क में खिलखिलाते हुए तितलियों के पीछे दौड़कर खेल रहे थे, किन्तु सुनील एक कोंने वाली बैंच पर उदास बैठा था। उसके साथियों ने उसे अपने साथ खेलने के लिए बुलाया भी, पर स्वयं खेलना तो दूर उसे आज अन्य बच्चों का खेलना भी अच्छा नहीं लग रहा था। अतः वह उसी स्थान पर बैठा रहा।
            दतर से लौटते वक्त उसके पिताजी ने उसे देख लिया और आवाज लगा दी। आवाज सुनकर वह पिताजी के पास चला आया।
''क्या बात है बेटा, बहुत उदास लग रहे हो आज !''-पिता जी ने सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा तो वह रो पड ा।
            ''बोलो बेटे, क्या बात है?''
            ''पिताजी, मैं अब पढ ने नहीं जाऊंगा कभी।''
            ''क्यों बेटे, अब क्या हुआ !''-पिताजी ने आश्चर्यचकित सुनील को ऊपर से नीचे तक देखा।
            ''मुझे अनिल भैया ने फिसड्डी कहकर चिढ ाया है''-कहकर फिर सुनील रोने लगा।
            पिताजी सोचने लगे, अनिल-सुनील दोनों भाई हमेशा साथ बैठकर पढ ते व खेलते-कूदते हैं फिर भी अनिल अपनी क्लास में प्रथम आता है, जबकि सुनील पास ही हो पाता है। इस बार तो छमाही परीक्षा में बहुत ही कम अंक आये हैं सुनील, के इसलिए चिढ ा दिया होगा अनिल ने। पर उसे रोता देख पिताजी को दया आ गई इसलिए उसी तरह सिर पर हाथ फिराते हुए उन्होंने सांत्वना दी-
            ''यह बात तो ठीक है। लेकिन एक बात तो बताओ। यदि हम तुमको एक ऐसी तरकीब बता दें जिससे तुम भी अपनी क्लास में प्रथम आओ, तो भी तुम पढ ाई बन्द करना चाहोगे?''
            ''क्या मैं भी प्रथम आ सकता हूॅं पिताजी?''-सुनील ने आश्चर्यजनक उत्सुकता से पूछा।
            ''क्यों नहीं? तुम हमेशा प्रथम आ सकते हो।''
            ''सच! तो फिर मैं पढ ाई बन्द नहीं करूँगा। आप बता दीजिए न वह उपाय।''
            ''ठीक है। पहले घर चलकर हाथ-मुँह धो लो। मैं भी कपड े बदल लूॅं, फिर बताऊॅंगा।''
            हाथ-मँुह धोकर वह ड्राइंगरूम में आया तब तक मम्मी ने चाय बना दी। पिताजी भी कपड े बदलकर आ गये। ''हाँ पिताजी अब बताइये''-सुनील की उत्सुकता देख पिताजी मुस्करा दिये-''हाँ बेटे, अब बताता हूँ, लेकिन अपने अनिल भैया को भी तो बुला लो। अरे लो, वह अपने आप ही आ गया।''
            हाँ, तो मैं कह रहा था कि बेटे सबसे पहली बात तो यह जान लो कि कोई भी विद्यार्थी न तो होशियार होता है और न फिसड्डी ही। स्कूल में प्रवेश लेते समय सब एक जैसे ही होते हैं।''
            ''ऐसा कैसे हो सकता है पिताजी?''-सुनील बोल पड़ा।
            ''ऐसा ही होता है। बाद में पढ ने के अपने-अपने तरीके व मेहनत के आधार पर होशियार और कमजोर बनते हैं सब। इस समय मैं उन्हीं कुछ तरीकों के बारे में बता रहा हूँ जिनको अपनाकर फिसड्डी से फिसड्डी विद्यार्थी भी क्लास में प्रथम आ सकता है।''
            ''बताइये न पिताजी, जल्दी से फिर।''
            ''तो सुनो-स्कूल खुलने के बाद, जब अपनी पुस्तकों व विषय की जानकारी हो जाए तो घर पर पढ ने के लिए समय-सारणी तैयार करो, जिसमें सभी विषयों के लिए उचित समय निर्धारित करो। ऐसा करने से प्रतिदिन सभी विषयों की पुनरावृत्ति भी होगी और पढ ाई बोझ भी नहीं मालूम होगी।
            ''दूसरी बात यह है कि जब भी पढ ो मन व दिमाग दोनों ही पढऋाई की तरफ होने चाहिए। ऐसा न हो कि आँखें किताब के काले अक्षरों पर टिकी हैं और मन गेंद-बल्ला या दोस्तों के बीच भटक रहा है।''
            ''हाँ पिताजी, ऐसा ही तो होता है''-सुनील एक साथ बोल उठा।
            ''बस तो अब पता चल गया, क्या कमी रह जाती है? जाओ, आगे से इन दो बातों का ध्यान रखो तो इस वर्ष अवश्य प्रथम आओगे तुम भी अनिल भैया की तरह। बाकी बातें फिर बताऊँगा।''
            ''धन्यवाद पिताजी, इस वर्ष ही नहीं अब हर बार प्रथम आऊंगा मैं।''-सुनील ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा तो मम्मी-पापा दोनों मुस्करा उठे। ''और फिर मैं कभी फिसड्डी नहीं कहूँगा तुमको।'' अनिल की बात सुन सभी खिलखिला उठे। सुनील भी हँस पड़ा। नई दिशा जो दिख गई थी उसे सफलता की।




                                     वह नन्हा बलिदानी
            कपड़े पहनते-पहनते अचानक एक लड के ने गिना-''अरे हम लोगों में से एक कोई कम है।''
            कौन कम है? वह सब पता करने में लगे थे कि इसी बीच उनमें से एक किशोर ने उफनती गंगा में छलांग लगा दी और डूब रहे राजेश को भयंकर भंवर से बाहर खींचने की कोशिश करने लगा।
            उ० प्र० के जनपद बुलन्दशहर से लगभग पचास कि० मी० पूर्व में तहसील अनूपशहर के अन्तर्गत एक छोटा-सा गांव है गंगापुर।       उसी गांव में एक घर है पं० ओमप्रकाश शर्मा का। जिनके परिवार में पं० ओमप्रकाश शर्मा की नब्बे वर्षीय वृद्ध माँ, पत्नी एवं उनके चार बच्चे हैं।
            गंगापुर गांव में केवल कक्षा पांच तक का ही स्कूल है। उससे आगे की शिक्षा हेतु गांव के बच्चों को गंगापुर से चार कि० मी० उत्तर-पूर्व में गंगा नदी के किनारे बसे गांव 'कर्णवास' में पढ ने जाना पड ता है। अधिकतर बच्चे पैदल ही पढ ने जाते हैं।
            कर्णवास का श्री देवत्रय आदर्श इण्टर कालेज, गंगा नदी के किनारे पर स्थित है। इसी विद्यालय में कक्षा नौ में पढ ता था विनीत शर्मा, पं० आमप्रकाश शर्मा का पन्द्रह वर्षीय बड ा पुत्र।  दि० २० अगस्त १९९१ को सुबह ही, विनीत शर्मा अपने गांव से अन्य सहपाठियों के साथ पढ ने के लिए रवाना हुआ था।
            उस दिन आधे दिन के बाद ही लगभग दस बजे विद्यालय की छुट्टी हो गई तो कुछ विद्यार्थियों ने गंगा नदी में नहाने का कार्यक्रम बनाया।
            विनीत शर्मा उस दिन घर से नाश्ता करके भी नहीं आया था अतः उसने गंगा नदी में नहाने की बजाय घर जाने के लिए कहा किन्तु अन्य सहपाठियों के आग्रह पर वह थोड ी देर नहाने के लिए सहमत हो गया तथा पन्द्रह-बीस मिनट नहाने के बाद नदी से बाहर निकलकर कपड े पहनने लगा। उसके साथ ही अन्य दो-चार साथी भी निकल आये और अपने-अपने कपड े पहनने लगे।
            कपड े पहनते'-पहनते अचानक विनीत शर्मा की नजर जयप्रकाश के छोटे भाई दस वर्षीय राजेश पर पड ी जो गंगा नदी में एक भंवर-जाल में फंसा डूबा जा रहा था तथा बार-बार हाथ ऊपर कर सहायता के लिए पुकार रहा था किन्तु हाथ ऊपर कर जैसे ही वह सहायता के लिए पुकारना चाहता, गंगा के तेज प्रवाहवश वह गुडुप से गोता खा जाता और इस तरह उसके मुँह में पानी भर जाता।
            विनीत शर्मा ने तुरन्त सभी साथियों का ध्यान राजेश की ओर किया तथा जयप्रकाश से अपने भाई को डूबने से बचाने के लिए कहा। वह नन्हा बलिदानी
            कपड़े पहनते-पहनते अचानक एक लड के ने गिना-''अरे हम लोगों में से एक कोई कम है।''
            कौन कम है? वह सब पता करने में लगे थे कि इसी बीच उनमें से एक किशोर ने उफनती गंगा में छलांग लगा दी और डूब रहे राजेश को भयंकर भंवर से बाहर खींचने की कोशिश करने लगा।
            उ० प्र० के जनपद बुलन्दशहर से लगभग पचास कि० मी० पूर्व में तहसील अनूपशहर के अन्तर्गत एक छोटा-सा गांव है गंगापुर।       उसी गांव में एक घर है पं० ओमप्रकाश शर्मा का। जिनके परिवार में पं० ओमप्रकाश शर्मा की नब्बे वर्षीय वृद्ध माँ, पत्नी एवं उनके चार बच्चे हैं।
            गंगापुर गांव में केवल कक्षा पांच तक का ही स्कूल है। उससे आगे की शिक्षा हेतु गांव के बच्चों को गंगापुर से चार कि० मी० उत्तर-पूर्व में गंगा नदी के किनारे बसे गांव 'कर्णवास' में पढ ने जाना पड ता है। अधिकतर बच्चे पैदल ही पढ ने जाते हैं।
            कर्णवास का श्री देवत्रय आदर्श इण्टर कालेज, गंगा नदी के किनारे पर स्थित है। इसी विद्यालय में कक्षा नौ में पढ ता था विनीत शर्मा, पं० आमप्रकाश शर्मा का पन्द्रह वर्षीय बड ा पुत्र।  दि० २० अगस्त १९९१ को सुबह ही, विनीत शर्मा अपने गांव से अन्य सहपाठियों के साथ पढ ने के लिए रवाना हुआ था।
            उस दिन आधे दिन के बाद ही लगभग दस बजे विद्यालय की छुट्टी हो गई तो कुछ विद्यार्थियों ने गंगा नदी में नहाने का कार्यक्रम बनाया।
            विनीत शर्मा उस दिन घर से नाश्ता करके भी नहीं आया था अतः उसने गंगा नदी में नहाने की बजाय घर जाने के लिए कहा किन्तु अन्य सहपाठियों के आग्रह पर वह थोड ी देर नहाने के लिए सहमत हो गया तथा पन्द्रह-बीस मिनट नहाने के बाद नदी से बाहर निकलकर कपड े पहनने लगा। उसके साथ ही अन्य दो-चार साथी भी निकल आये और अपने-अपने कपड े पहनने लगे।
            कपड े पहनते'-पहनते अचानक विनीत शर्मा की नजर जयप्रकाश के छोटे भाई दस वर्षीय राजेश पर पड ी जो गंगा नदी में एक भंवर-जाल में फंसा डूबा जा रहा था तथा बार-बार हाथ ऊपर कर सहायता के लिए पुकार रहा था किन्तु हाथ ऊपर कर जैसे ही वह सहायता के लिए पुकारना चाहता, गंगा के तेज प्रवाहवश वह गुडुप से गोता खा जाता और इस तरह उसके मुँह में पानी भर जाता।
            विनीत शर्मा ने तुरन्त सभी साथियों का ध्यान राजेश की ओर किया तथा जयप्रकाश से अपने भाई को डूबने से बचाने के लिए कहा।





                                   और पोल खुल गई...

            सरकारी अस्पताल में एक डॉक्टर की जगह खाली है। अखबार में यह पढ़कर मकुना हाथी प्रसन्न हो उठा।
            डॉक्टर की पढ ाई तो मकुना हाथी ने पिछले महीने ही पूरी कर ली थी। चलो प्रार्थना-पत्र भेज देते हैं। शायद नौकरी मिल ही जाय। सोचकर मकुना हाथी ने डाकघर से एक लम्बा लिफाफा खरीदा और एक प्रार्थना-पत्र भी टाइप करा लिया। लम्बे लिफाफे पर पता लिखा और साढ े सात रुपये की टिकट लगाकर रजिस्ट्री कर दी।
            कुछ समय बाद ही उसे लिखित परीक्षा का बुलावा-पत्र मिल गया। वह बहुत खुश हुआ। निश्चित तिथि पर वह लिखित परीक्षा भी दे आया।
            लिखित पीरक्षा के बाद की कार्यवाही में दो-तीन महीने लग गये। एक दिन वह बाहर बैठा अखबार पढ  रहा था कि डाकिया ने एक लम्बा लिफाफा उसे थमा दिया। लिफाफा खोल कर पढ ा तो मकुना हाथी की खुाशी का ठिकाना न रहा। उसे सरकारी अस्पताल हेतु चुन लिया गया था। इसी खुशी में उसने सभी को मिठाई बांटी।
            डॉक्टर मकुना प्रतिदिन समय से अस्पताल जाता तथा शाम तक अस्पताल में मरीजों को देखता। सभी मरीजों की जांच वह बहुत ध्यान से करता तथा सोच-समझ कर दवा लिखता। उसके पास जो भी मरीज आता, कुछ ही समय में बिल्कुल ठीक हो जाता। ठीक होने वाले मरीज दूसरे मरीजों से डॉक्टर मकुना की प्रशंसा करते। इस तरह उस अस्पताल में डॉक्टर मकुना प्रसिद्ध हो गया। अब आने वाले मरीज अपनी जांच डॉक्टर गैंड ादास की बजाय डॉक्टर मकुना से कराना ज्यादा ठीक समझते।
            देखते ही देखते डॉक्टर मकुना के सामने मरीजों की भीड  लगने लगी। जबकि डाक्टर गैंड ादास अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे ऊंघता रहता।
            यह बात जब उनके मुखय चिकित्सा अधिकारी शेरसिंह तक पहँुची तो उन्होंने डॉक्टर गैंड ादास को उस अस्पताल से दूर स्थानान्तरित करके, डॉक्टर मकुना को उसकी जगह पदोन्नत करने का विचार बनाया।
            डॉ० गैंड ादास को जैसे ही इस बात का पता चला तो उसके पैरों तले की जमीन खिसक गई। डॉक्टर मकुना के लिए उसके मन में क्रोध भड क उठा, पर डॉक्टर मकुना के सरल एवं परिश्रमी स्वभाव के कारण वह उससे कुछ कह न सका। पर धीरे-धीरे उसके मन में डॉक्टर मकुना के कारण हुए अपमान का बदला लेने का विचार तीव्र होने लगा। एक दिन डॉक्टर मकुना अपनी कुर्सी पर आकर बैठा ही था कि श्यामा हिरनी अपने बच्चे को गोद में चिपकाए सामने आकर खड़ी हो गई-
            ''डॉक्टर साहब, कल आपने कैसी दवा दी थी? मेरा बच्चा ठीक होने की बजाय और अधिक बीमार हो गया।''
            डॉक्टर मकुना ने श्यामा हिरनी के बच्चे का पर्चा निकाल कर देखा-''दवा तो मैंने ठीक लिखी है। बीमारी कैसे बढ  गई तुम्हारे बच्चे की?''
            डॉक्टर मकुना, श्यामा से पूछ ही रहे थे कि तभी ढेंचू गधा गिरता-पड ता मकुना के सामने आकर हांफने लगा-''डॉक्टर साहब, मुझे आपने दवा की जगह क्या दे दिया ! हाय, मैं ठीक होने की बजाय, दस्त और उल्टियों से परेशान हो गया, आपकी दवा खाकर।''
            ढेंचू गधे की बात सुनकर डॉक्टर मकुना और भी आश्चर्य में पड  गया क्योंकि ढेंचू गधा के पर्चा में भी उसने बढि या दवा लिखी थी, फिर ये सब कैसे हुआ? वह ठोड ी पर उंगली रखकर सोच ही रहा था कि चार-पांच मरीज और आ गये जिन्हें उसने कल दवा दी थी और वो सभी दवा खाकर कल से और भी ज्यादा बीमार हो गये थे।
            डॉक्टर मकुना गहरे सोच में पड  गया। ये क्या बात है? वह जिस मरीज का भी पर्चा निकालकर देखता सभी में दवा अच्छी ही लिखी मिलती है। फिर ये सब ठीक होने की जगह अधिक बीमार क्यों हो गये।
            उसे लगा कि दाल में कुछ काला जरूर है। उसने शिकायत लेकर आये सभी मरीजों से पूछा-
            ''क्या आप के पास कल की कुछ दवा बची है?''
            ''जी हाँ, मेरे पास बची है, ये देखो मैं लाई हूँ।''-श्यामा हिरनी ने दवा की पुडि या आगे बढ ा दी।
            श्यामा हिरनी के हाथ से दवा लेकर डॉक्टर मकुना ने पर्चा में लिखी दवा से मिलान किया, बस उसकी समझ में सब बात आ गई। उसने सभी मरीजों के पर्चों पर दूसरी दवा लिखीं और कम्पाउण्डर लौमड दास से दवा लेने के बाद, उसे दिखाने के लिए कहा। सभी मरीज कम्पाउण्डर लौमड दास की खिड की के सामने  लाइन लगाकर खड े हो गये।
            कम्पाउण्डर से दवा लेकर सभी डॉक्टर मकुना के पास आ गये और एक-एक कर सभी अपनी-अपनी दवा दिखाने लगे।  डॉक्टर मकुना ने इस बीच टेलीफोन करके अपने मुखय चिकित्सा अधिकारी शेरसिंह को एवं पुलिस इंस्पेक्टर चीतासिंह को बुला लिया था। सभी मरीजों की दवा एवं उनके पर्चे उन्हें दिखाते हुए डॉक्टर मकुना ने कहा-''देखिए सर, मैंने पर्चे में दवा कुछ और लिखी है और कम्पाण्डर लौमड़दास ने कुछ और ही दी है इन्हें। साक्षात् मरीजों के स्वास्थ्य से खिलवाड  की है इस लौमड दास ने। निश्चित ही मुझे बदनाम करने के लिए ऐसा किया गया है।''
            डॉक्टर शेरसिंह ने मकुना के पर्चे व दवा का निरीक्षण किया और फिर कम्पाउण्डर लौमड दास को गिरतार करने का हुक्म दे दिया।
            पुलिस इंस्पेक्टर चीतासिंह ने लौमड दास के गाल पर एक थप्पड  रसीद किया तो डर के मारे कांपते हुए लौमड दास ने सब सच-सच बता दिया। यह भी कि ऐसा करने के लिए उसे डॉक्टर गैंड ादास ने कहा था।
            'पोल खुल गई है' पता चलते ही डॉक्टर गैंड ादास ने अपनी गलती स्वीकार कर ली तथा सच-सच सब बता दिया, कि डॉक्टर मकुना के रहते हुए उसके पास मरीजों ने आना ही छोड  दिया था अतः इसी कारण उसका तबादला भी यहाँ से होने वाला था। ईर्ष्यावश उसने कम्पाउण्डर लौमड दास को लालच देकर ऐसा षड यंत्र रचा था, जिससे डॉक्टर मकुना बदनाम हो जाए।
            डॉक्टर गैंड ादास की बात सुनकर सभी मरीज भौचक्के रह गये। सभी ने मिलकर डॉक्टर मकुना से, उसे गलत समझने के लिए क्षमा मांगी।
            मुखय चिकित्सा अधिकारी शेरसिंह ने डॉक्टर गैंड ादास एवं कम्पाउण्डर लौमड दास को निलम्बित कर दिया।





                                       अंधविश्वास की जड़
सुधीर कुछ सोचता हुआ सा जा रहा था। कल डाक से उसे एक पोस्टकार्ड मिला था, जिसे पढ ने के बाद वह चिन्तित हो उठा था। उसने पोस्टकार्ड  को उलट-पलटकर देखा। पोस्टकार्ड एक ओर छपा हुआ था किन्तु भेजने वाले का कुछ नाम-पता नहीं छपा था उस पर, तथा दूसरी ओर हाथ की लिखावट में सुधीर का पता लिखा था।
            उसने पते को एक बार फिर से पढ ा। बिल्कुल उसी का पता लिखा है। लेकिन यह भेजा किसने है?
            उसकी गरीबी को देखकर भगवान् ने ही तो यह पोस्टकार्ड उसके पास नहीं भेजा कहीं ! गरीबी दूर करने तथा मालामाल होने का इससे अच्छा तरीका  और क्या हो सकता है। एक हजार पोस्टकार्ड या परचे बिल्कुल वैसी ही भाषा में छपवाओ और मित्रों, परिचितों के पास भेज दो। वह मन ही मन प्रसन्न हुआ। पर दूसरे ही पल उसकी खुशी छूमन्तर हो गई। क्योंकि पोस्टकार्ड पर ये भी छपा था कि 'पोस्टकार्ड पढ कर चुपचाप रख लेने वाले का भगवान सब कुछ नष्ट कर देंगे'-उदाहरण स्वरूप कुछ लोगों के नाम भी छपे थे जिन्होंने पोस्टकार्ड में छपे अनुसार किया तो मालामाल हो गये जबकि उसके अनुसार न करने वालों का सब कुछ नष्ट हो गया और वे भिखारी बन गये। पढ कर वह कांप उठा।
            यदि वह ऐसे ही एक हजार पोस्टकार्ड छपवाकर न भेज सका तो? भेजेगा भी कैसे? कभी दो पैसे भी बचते हैं क्या उसके पास !
            सोचते-सोचते वह सुरेश के घर की ओर जा रहा था। शायद उससे कुछ रूपये उधार मिल जायें...। तभी किसी ने उसका नाम पुकारा। उसने पीछे मुड कर देखा-
            ''अरे तुम सोहन !''-अपने बचपन के मित्र सोहन को पहचान कर उसने नमस्ते की।
            सुधीर को गले लगाते हुए सोहन ने पूछा-''किस सोच में डूबे हुए थे तुम? कितनी देर से तुम्हें आवाज दे रहा था पर तुम हो कि.....और ये हाल क्या बना रखा है अपना?'' पढ़ाई के दिनों में सोहन और सुधीर घनिष्ठ मित्र थे। वे दोनों हर समय साथ रहते, पढ ते तथा साथ ही खेलते थे, तथा हमेशा परीक्षा में प्रथम आते थे। किन्तु सुधीर के पिता के पास इतना पैसा नहीं था कि वह सुधीर को आगे पढ ा सकें। अतः सुधीर को मैट्रिक पास करते ही मेहनत-मजदूरी में लग जाना पड ा, जबकि पढ ाई पूरी करने के बाद सोहन ने अपने पिता धनपत सेठ का प्रिंटिंग प्रेस का कारोबार संभाल लिया था। अपनी उच्च शिक्षा के आधार पर नित-नये प्रयोग करके वह अपने व्यवसाय को बढ ाने में लगा था।
            ''क्या बात है सुधीर, कुछ चिन्तित से लग रहे हो?''- सोहन के पूछने पर सुधीर सोचने लगा-क्या बताए सोहन को ! वह तो अमीर बाप का बेटा है। क्या चिन्ता की बात। पर गरीबों को तो दिन निकलने से रात होने तक अनेक चिन्ताएं सताती हैं। इसलिए वह चुप लगा गया। पर दूसरे ही पल उसने सोचा-क्यों न पोस्टकार्ड वाली बात सोहन को बता दे। हो सकता है कुछ हल निकल आये। सोहन तो पढ ा-लिखा भी ज्यादा है उससे। पर सुनकर सोहन ने खिल्ली उड ाई तो? यह सोचकर वह चुप रह गया तो सोहन ने आग्रह किया-''क्या बात है सुधीर, तुम मुझसे कुछ छुपा रहे हो...''
            चलते हुए अपनी कार के पास पहुँचकर सोहन ने दरवाजा खोल दिया। सुधीर सकुचाते हुए कार में बैठ गया तो सोहन ने फिर पूछा।
            इस बार सुधीर ने कल की डाक से मिले पोस्टकार्ड जो एक तरफ छपा था कि 'इतने वर्ष बाद दुष्टों का संहार करने के लिए अमुक गॉंव में भगवान अमुक रूप में अवतार लेंगे तथा अपने भक्तों की रक्षा करेंगे।'
            'इस बात का प्रचार-प्रसार करने के लिए यह पोस्टकार्ड पाने वाला इसी तरह के कम से कम एक हजार पर्चे या पोस्टकार्ड छपवाकर बांटेगा या डाक से भेजेगा तो कुछ ही दिनों में उसकी गरीबी मिट जायेगी, रोग भाग जायेंगे और वह मालामाल हो जायेगा और.....' ''और यदि परचे छपवाकर नहीं बांटे तो भगवान उसका सब कुछ नष्ट कर देंगे, यही न?''-सुधीर अपनी बात कह भी न पाया था कि सोहन बीच में ही बोल पड़ा।
            ''हाँ-हाँ, बिल्कुल यही छपा है पोस्टकार्ड में। लेकिन ये सब तुझे कैसे पता चला? क्या तुझे भी डाक से...'' सुधीर ने आश्चर्य से पूछा, तो सोहन हँसने लगा-
            ''क्या इसी बात से चिन्तित था?''
            ''हाँ भई, यहाँ तो सुबह-शाम की रोटी मुश्किल से जुटती है। एक हजार पोस्टकार्ड या परचे छपवाने के लिए पैसे कहाँ से आयेंगे? अगर परचे नहीं छपवाये तो.....।''
            ''तो भगवान तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड  पायेगा।'' सोहन ने हँस कर कहा तो सुधीर चिढ  गया-
            ''तुम्हें ऐसे नहीं कहना चाहिए सोहन। माना कि तुम अमीर हो। पैसे से सब कुछ कर सकते हो। पर भगवान के बारे में इस तरह बोलने से.....''
            मैुं मजाक नहीं कर रहा सुधीर। सचमुच ही परचे न बांटने से तुम्हारा कोई अहित नहीं होगा।''
            सुनकर सुधीर को और आश्चर्य हुआ। पोस्टकार्डों का कुछ रहस्य सोहन को मालूम है, यही सोच सुधीर ने अनुनय की-
            ''फिर सच बात क्या है बताओ न सोहन?'' सुधीर ने उत्सुकता से पूछा तो सोहन ने रहस्य खोला-
            ''ये पोस्टकार्ड और परचे छापकर बांटने का एक षड यन्त्र हैं जैसे राजनीतिज्ञ अपना महत्त्व दर्शाने एवं कुर्सी की सुरक्षा के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं, उसी तरह कुछ छोटे निम्न श्रेणी के प्रेस वाले अपना धंधा चमकाने के लिए ऐसे तरीके अपनाते हैं।''
            ''वो कैसे?''
            ''मान लो एक प्रेस वाले ने इस तरह के सौ परचे छापकर जनता में बांट दिए या पोस्टकार्ड भेज दिए। अब सौ में से मान लो तुम्हारे जैसे पचास व्यक्तियों ने पर्चे छपवाये तो कितने परचे छपे? इसी तरह यह क्रम चलता रहता है और अंधविश्वासी लोग इसके शिकार होते रहते हैं।''
            ''पर तू ये सब कैसे जानता है सोहन?'' ''मैं भी तो एक प्रेस का मालिक हूँ। माना कि मैं ये धन्धा नहीं करता, पर मालूम तो सब कुछ रहता ही है।''
            ''तू ठीक कह रहा है न सोहन?''-सुधीर को जैसे विश्वास नहीं हो पा रहा था।
            ''बिल्कुल ठीक कह रहा हूँ।''
            ''ठीक है फिर, गाड़ी को पुलिस स्टेशन की ओर ले चल।''
            ''वहाँ क्या करेगा?'' सोहन ने पूछा।
            ''किसी को धर्म के नाम पर डरा-धमका कर या उसकी भावनाओं को उद्द्वेलित करके ब्लैकमेल करके धन कमाना भी तो अनैतिक कार्य है न?''
            पुलिस स्टेशन पहुँचकर सुधीर ने वह पोस्टकार्ड इंस्पेक्टर माने को दिखाते हुए सारी कहानी सुना दी।
            इंस्पेक्टर माने ने सोहन के बताए अनुसार कई जगह छापे मारे। दोनों की बात को सही पाया गया तथा सोहन व सुधीर की बुद्धिमत्ता की बहुत प्रशंसा की। पर इससे भी अधिक प्रसन्नता तो सुधीर को इस बात की थी कि उसके मन से अंधविश्वास की जड  समाप्त हो गई थी।





                                         उदास क्यों हो

            चौराहे के बीचोबीच, घास-फूस और लकड़ियों के ढेर को आकाशदीप प्रतिदिन ही देखता है। यह होलिका है। स्कूल जाते-आते में यह चौराहा रास्तें में ही पड ता है। दिन-प्रतिदिन ऊँची होती जा रही इस होलिका को देख आकाशदीप के दिल में कुल-बुलाहट होती है। वह जानना चाहता है कि ये दिन-प्रतिदिन ऊँची और ऊँची कैसे होती जा रही है? पहले दिन तो चौराहे के बीच थोड ा सा फूस व चार-पांच लकडि याँ रखी थीं। दूसरे दिन और अधिक हो गईं। इसी तरह दिन-प्रतिदिन बढ ती जा रही लकडि याँ व घास-फूस उसके मन में जिज्ञासा पैदा करती हैं।
            ''इस जगह, चौराहे पर रोज-रोज लकड ी और घास-फूस कौन डाल जाता है?''-साथ चल रहे बासु और टीटू की ओर देखते हुए आकाशदीप ने होलिका की ओर इशारा किया।
            ''हमसे बड े लोग डालते हैं, और कौन।'' टीटू ने बताया।
            ''कभी-कभी उन बड े लोगों में बच्चे भी शामिल हो जाते हैं।''-बासु ने भी अपनी जानकारी प्रकट की।
            ''अच्छा ! हम जैसे बच्चे?'' आकाशदीप ने उत्सुकता से पूछा।
            ''और क्या, बिल्कुल हम जैसे बच्चे।''
            ''तुम कभी शामिल हुए हो?''
            ''हाँ-हाँ, क्यों नहीं। बहुत मजा आता है। तुम चाहो तो शाम को सात बजे आ जाना। तुम्हें भी ले चलेंगे साथ।''-टीटू बोला।
            शाम को जब वह पहुँचा तो टीटू और बासु उसका इन्तजार करते मिले। साथ में और बच्चे भी थे। कुछ उनके बराबर के तो कुछ बड े भी। और कुछ उनसे भी बड े। सभी गांव से बाहर सड क पर पहुँच गये। वहाँ कुछ और भी लोग खड े मिले। उन सभी के हाथों में लकड ी काटने के लिए कुल्हाड ी और बांक थे।
            सभी लोग एक बगीचे में पहुँच गये। बहुत बड े-बड े पेड  थे उस बगीचे में-आम के, जामुन के, कटहल के, नीम और पीपल के भी।
            सबने घूम-फिर कर एक आम के पेड  को चुना। श्यामू, बंदर की तरह उचकते हुए उस पर चढ  गया। गोपाल ने वंशी के कंधे पर खड े होकर श्यामू दादा को कुल्हाड ी थमा दी। खुट्ट खुट् खूट् खुट् श्यामू दादा लगा काटने उस पेड  को। ''ये बगीचा किसका है?'' आकाशदीप ने धीरे से टीटू के कान में पूछा।
            ''होगा किसी का भी।''
            ''लेकिन इस तरह, बिना पूछे किसी के बगीचे से पेड़ काटना तो चोरी हुई न टीटू भैया?''
            ''अरे तभी तो मजा आता है। कभी-कभी तो ऐसे में बगीचे का मालिक भी आ जाता है। बाग के मालिक को देखते ही बच्चे और बड ें सभी लदर-पदर भागते हैं। कोई गेहूँ के खेत में छुप जाता है तो कोई जौ के खेत में या कोई ईख के खेत में ही।''
            काटी गई लकडि यों को होलिका पर डाल दिया गया। ''अब क्या चीज लाई जाय?'' 
            अब किसी का छप्पर लाते हैं।''
            सुनकर आकाशदीप चौंक गया-''छप्पर कहाँ से लायेंगे टीटू?''
            ''अरे किसी की झोपड ी से उतार लायेंगे।'' टीटू ने लापरवाही से उत्तर दिया जैसे उसे सब कुछ पता हो।
            अंधेरा हो गया था फिर भी टीटू, बासु, सागर, नीया, गोपाल सभी बड े उत्साह के साथ श्यामू दादा और वंशी के पीछे-पीछे चल दिए।
            ''इस छप्पर को ले चला जाय''-गोपाल व वंशी ने झोपड ी के चारों ओर घूम कर देखा। कोई है तो नहीं। अन्दर एक दीपक जल रहा था। दीवार में बने झरोखे से गोपाल ने झांका। दो लोग चारपाई पर बैठे बात कर रहे थे। ''भाग चलो, यहाँ दाल नहीं गलेगी।'' सब भाग छूटे। आगे-आगे गोपाल व बंशी, पीछे-पीछे सब बच्चे।
            ''ये ठीक रहेगा।''-गोपाल एक बिटौरा के पास खड ा हो गया। कुछ बच्चों ने बिटौरा के अन्दर से उपले उठा लिए, कुछ ने वंशी-गोपाल के साथ मिलकर उपलों के ऊपर रखा छप्पर ही उठा लिया।
            लकड ी, उपले और इस छप्पर को डालते ही होलिका और ऊँची हो गई। सभी फिर चल दिए। इस बार एक बुर्ज (भूसा का भण्डार) पर से छप्पर उतार लाये। होलिका और ऊँची हो गई।
            ''कल फिर आना सब लोग, इसी जगह।''-बंशी ने समझाया।
            ''अभी कितने दिन और करेंगे ऐसे?'' आकाशदीप के प्रश्न पर सब हँस पड े-''अरे पगले, अब होलिका दहन के केवल पांच दिन ही तो रह गये हैं।''-गोपाल ने समझाया।
            ''और क्या, पाँचवें दिन पूर्णिमा की रात को तो इसमें आग लगा दी जायेगी।''-बंशी ने जानकारी दी।
            ये लो, चार दिन भी बीत गये। खेरापति ने माचिस की तीली खींची और देखते ही देखते होलिका की आग की लपटें आसमान को छूने लगीं।  सब लोग ऊँची और ऊँची होती जा रही होलिका की लपट को देख प्रसन्न हो रहे थे। बच्चे तालियाँ बजा रहे थे। पर आकाशदीप एक ओर उदास खड़ा था। उन लपटों में उसे होलिका की जगह किसी का बगीचा, किसी का उपलों का ढेर तो किसी का छप्पर जलता दिख रहा था।
            किसी का नुकसान करके, अपना मनोरंजन करना अच्छे बच्चों का काम नहीं है न।-वह सोच रहा था।




                                              झूलन पंखा
तेज गति से घूमते हुए बिजली के पंखे की नजर टांड़ी पर पहुँच गई। वहाँं पर कुछ छोटे-मोटे सामान रखे थे। उन सामानों के साथ ही एक बहुत बड ा लकड ी का तखता-सा रखा था। वह तखता रंगीन कपड े से सजा हुआ था तथा ऊपर-नीचे झालर लटकी हुई थी, जो देखने में अच्छी लग रही थी।
            बिजली के पंखे ने घूमते हुए टांड ी की ओर गौर से देखा पर वह समझ न सका कि ये क्या चीज हो सकती है। इससे पहले कभी उसका ध्यान टांड ी की तरह गया ही नहीं था। उसके मन में चीज के बारे में जानने की इच्छा हुई। उसने घूमते हुए धीरे से पुकारा-
            ''ए, तुम्हारा क्या नाम है?''
            थोड ी देर तक कुछ उत्तर नहीं मिला तो उसने फिर पुकारा-''हाँ-हाँ, मैं तुमसे ही पूछ रहा हूं झालर वाले। तुम्हारा नाम क्या है?''
            ''मेरा नाम? मुझे भी पंखा कहते हैं भाई। झूलन पंखा।'' झालर वाले पंखा ने मुस्कराते हुए कहा।
            ''झूलन पंखा ! तुम कैसे पंखा हो ! पंखा तो मैं हूँ। दिन-रात मालिक की हवा करता हूँ।''
            ''हाँ भाई, जब इस मकान में बिजली नहीं थी तब तुम्हें यहॉं कोई पहचानता भी नहीं था। तब हवा करने का काम मैं ही करता था। बल्कि पहले घर-घर में मेरे जैसे झूलन पंखा ही हुआ करते थे।''
            ''लेकिन तुम हवा कैसे करते होगे? मैं तो बिजली से घूमता रहता हूॅं।'' बिजली के पंखे ने हैरान होते हुए पूछा।
            ''देखो, ये जो दो हुक देख रहे हो न, इनके सहारे मैं छत से लटक जाता हूँ, और ये झालर नीचे की ओर लटकी रहती है।'' झूलन पंखे ने हुकों की ओर इशारा करते हुए बताया।
            ''लेकिन तुम हवा कैसे करते थे ये बताओ?'' बिजली के पंखे ने उत्सुकता दिखाई।
            ''बताता हूँ। ये देखो, मेरे ठीक बीचोबींच से तीस सेन्टीमीटर इधर-उधर दो छल्ले दिखाई दे रहे हैं न, इनमें एक मजबूत डोरी बांधी जाती है। बिल्कुल पतंग की तरह। उसके बाद उस डोरी का एक सिरा छत में लटके एक छल्ले में होते हुए दूर बैठे आदमी को थमा दिया जाता है। बस, वह आदमी जब डोरी को खींचता या छोड ता है तो मेरा शरीर आगे-पीछे झूलने लगता है, और नीचे बैठे या सोए मालिक को हवा लगने लगती है।''
            ''अरे वाह, लेकिन अब तो सब जगह हम बिजली के पंखों का ही साम्राज्य है। अब तुमको बेकार ही क्यों रख छोड ा है मालिक ने?'' बिजली का पंखा इठलाते हुए बोला। ''हो सकता है कभी हमारी भी जरूरत पड़ जाए।'' झूलन पंखे ने नम्रता से कहा।
            ''अरे नहीं, अब आदमी ने बहुत तरक्की कर ली है। अब तो घर-घर बिजली है। तुम्हारी जरूरत पड ने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। तुम्हें तो कुल्हाड ी से चीर-फाड कर जला डालना चाहिए अब।'' बिजली के पंखे ने घमंड से कहा।
            ''पंखे भाई, ज्यादा घमंड ठीक नहीं होता। देखा जाय तो तुम कभी भी टें बोल सकते हो। अधिक बिजली आ गई तो तुम्हारा मोटर ही फुक जाता है या कण्डन्सर ही जल जाता है। मुझे देखो, ठोस शरीर है। कुछ भी नहीं बिगड ता कभी।''
            झूलन पंखा, बिजली के पंखे को प्यार से समझा ही रहा था कि बिजली चली गई और बिजली का पंखा धीरे-धीरे घूमते हुए रुक गया।
            ''लो भई, तुम्हारी बिजली ही भाग गई।'' झूलन पंखा ने कहा तो बिजली का पंखा खिसिया गया।
            कई दिन तक बिजली नहीं आई तो मालिक के आदेश पर झूलन पंखा को साफ करके छत से लटका दिया गया।
            साफ-सफाई के बाद झूलन पंखा चमकने लगा और झूल-झूल कर हवा करने लगा।
            बिजली के पंखे ने देखा तो देखता ही रह गया, ''अरे, तुम तो लटकने के बाद बहुत सुन्दर लगते हो, झूलन पंखे। और हवा भी बहुत अच्छी करते हो।''
            ''धन्यवाद भाई। मुझे खुशी है कि तुमने दूसरे के महत्त्व को पहचाना तो और बिना संकोच के दूसरे की प्रशंसा भी की।''
            कहकर झूलन पंखे ने, बिजली के पंखे के कंधे पर प्यार से हाथ रख दिया।
रामदीन दूध वाला
रामदीन के पास दो कुन्नी भैंसें थीं। वह उनमें से एक भैंस का दूध बेच दिया करता था और दूसरी के दूध को अपने घर के खर्च में काम लाता।
            सुबह दिन निकलने से पहले ही उसके यहाँ दूध लेने वालों की भीड  लग जाती। कोई २५० ग्राम कोई ५०० ग्राम तो कोई एक किलो दूध खरीदता। इस तरह दूध लेने वाले रामदीन के यहाँ सुबह को पहुँचने के क्रम से अपने छोटे-बड े बर्तनों को लाइन से रख देते।
            रामदीन भैंस को खल-चना की सानी लगाकर एक बड ी-सी बाल्टी में रखे पानी से पहले कुन्नी के थन धोता। उसके बाद बचे हुए पानी को धरती पर फैला कर बाल्टी को कुन्नी के थनों के नीचे धरती पर रख, दोनों हाथों से धर्र-मर्र धार निकालना शूरू कर देता। पूरा दूध निकालने के बाद वह लाइन में रखे बर्तनों में दूध नापना शुरू कर देता।
            भोला भी रामदीन का पुराना ग्राहक है, लेकिन कुछ दिन से भोला ने महसूस किया है कि रामदीन का दूध पतला लगने लगा है। उसने अपनी शंका अन्य ग्राहकों से भी प्रकट की तो सभी ने सहमति में सिर हिलाया, लेकिन सभी इस असमंजस में भी थे कि रामादीन पर दोष किस तरह लगायें। वो तो हम सबके सामने ही दूध निकालता है और थन धोने के बाद बचे पानी को भी हमारे सामने ही फेंककर बाल्टी बिल्कुल खाली कर देता है। ऐसे में रामादीन से कुछ कहें तो वह बुरा मान सकता है।
            ''बात तो ठीक ही कह रहे हैं सब''-भोला ने सोचा। लेकिन १० रुपये किलो का दूध वह भी पतला? दाल में काला तो जरूर है कुछ।
            भोला ने एक तरकीब सोची। उसने यह काम कुक्कू को सौंप दिया। कुक्कू भोला का सिखाया-कुत्ता है। जब वह छोटा-सा पिल्ला था तभी से भोला ने उसे जासूसी का प्रशिक्षण दिया है।
            भोला ने कुक्कू को सारी बात समझा दी। दूसरे दिन जब दूध लेने गया तो कुक्कू को भी अपने साथ लेता गया।
            कुक्कू ने कुन्नी भैंस के चारों ओर एक चक्कर लगाया। उसके गोबर को सूंघा और फिर भैंस की पिछली टांगों की सीध में थोड़ी दूर जाकर बैठ गया।
            रामादीन धर्र-मर्र करके अभी बाल्टी में मुश्किल से एक लीटर दूध ही निकाल पाया होगा कि कुक्कू ने चुपके से आकर, अचानक कुन्नी की पूंछ पकड  कर जोर से भौंक दिया।
            अचानक पूंछ के खिंचाव और जोर से भौंकने की आवाज से कुन्नी बिदक गई और उछल कर एक ओर खड ी हो गई।
            रामदीन भी अचानक कुछ समझ न सका और भैंस के बिदकते ही अचानक हड बड ा कर खड ा हो गया।
            भोला पहले से ही सतर्क था। उसने सभी का ध्यान रामदीन के सीधे हाथ की ओर कर दिया-''देखिए, आप सब देखिए, रामादीन के सीधे हाथ से पानी की धार कैसे बह रही है।''
            सबने देखा तो दंग रह गए। रामदीन संभल पाता कि उससे पहले ही भोला ने रामदीन के कुर्ते में हाथ डालकर पानी भरी प्लास्टिक की थैली को बाहर खींच लिया और रहस्य पर से पर्दा हटाते हुए सबको बताया- ''देखिए भाइयो, रामदीन ने दो लीटर पानी भरी इस प्लास्टिक की थैली को अपने कुर्ते की गुप्त जेब में रखकर इसके नीचे से ये एक पतली नली हाथ में होते हुए कलाई में बांध रखी थी। जैसे ही रामादीन दूध निकालना शुरू करता है, इस नली के ऊपर बंधे रबर बैंड को चुपके से हटा देता है।
            ''रामदीन जितनी देर से भैंस का पूरा दूध दुहता है उतनी देर में धीरे-धीरे ये दो लीटर पानी भी दूध में मिल जाता है और हम लोगों को पता भी नहीं चलता।''
            सभी ने भोला की बहुत तारीफ की और कुक्कू को थोड़ा-थोड ा दूध पीने को दिया।
            रामदीन ने भी अपनी गलती मानते हुए भविष्य में ऐसा न करने की कसम खाई।





                                              दूने के चक्कर
मनोज ने पलवल के आई० टी० आई० कालेज में प्रवेश ले लिया था। अपने कुछ अन्य साथियों सहित वह प्रतिदिन सुबह की शटल गाड़ी से विद्यालय को रवाना हो जाता और शाम को कभी जनता एक्सप्रेस से तो कभी दोपहर को तूफान एक्सप्रेस से वापस आ जाता।
            एक दिन इसका उल्टा हो गया। प्रैक्टिकल कराने के कारण मशीन शॉप के प्रशिक्षक ने उस दिन शाम चार बजे तक विद्यार्थियों को नहीं छोड ा तो मनोज को घर वापस आने के लिए शटल गाड ी ही एकमात्र बची।
            वह अपने एक मित्र सुधीर के साथ पलवल स्टेशन पर गाड ी में आकर बैठ गया। गाड ी के चलते ही उसके सामने वाली सीट पर चार-पांच आदमियों ने एक तौलिया अपने घुटनों पर बिछाया और ताश की गड्डी निकाल कर जूआ खेलना शुरू कर दिया।
            उनमें से एक जो बीच में बैठा था, वह ताश फैंट रहा था तथा बीच-बीच में आवाज लगा रहा था-
            ''हॉं भाई लगाओ, पांच रुपया, दस रूपया, लगाओ-लगाओ और दूने करो।''
            कई आदमियों ने तिक्की पर पांच रुपये तो कई ने दुग्गी पर दस रुपये लगाये। लाल कमीज वाले एक आदमी ने पंजी पर पचास रूपये लगाये। सुधीर को देखकर आश्चर्य हुआ कि उसी आदमी की पंजी आ गई। ताश फैंटने वाले ने उसे ५० के दूने १०० देकर बाकी लोगों के रूपये समेट लिए। इसी तरह तीन-चार बार हुआ। लाल कमीज वाला आदमी जिस ताश पर भी रूपये लगाता वही पत्ता निकल आता और वह हर बार ताश फैंटने वाले आदमी से दूने रूपये ले लेता। देखकर सुधीर को भी उत्सुकता हुई। उसने मनोज के कान में पूछा-
            ''तुम्हारे पास कितने रूपये हैं?''
            ''क्यों, क्या करना है तुम्हें?'' मनोज ने हँसकर पूछा।
            ''चलो हम भी पैसे लगा कर देखें। निकल आया पत्ता तो दूने हैं ही।'' सुधीर ने सलाह दी।
            मनोज ने जेब टटोल कर देखी। आज ही उसने पिताजी से फीस के लिए पच्चीस रूपये लिए थे जो कक्षा अध्यापक के छुट्टी पर होने के कारण उसकी जेब में ज्यों के त्यों रखे थे।
            ''रूपये तो पच्चीस हैं पर...''       
            ''पर क्या? अरे दूने हो गए तो मौज करेंगे। तू डरता क्यों है ! चल चुपके से उसी आदमी से पूछते हैं, कौन से ताश पर लगायें। लाल कमीज वाले को बहुत आइडिया है।''  ''मुझे तो कुछ चाल लगती है। वरना हर बार उसका ही पत्ता कैसे निकल आता है?'' मनोज ने समझाया।
            ''अरे अनुभव से सब कुछ होता है। उसे गहरा अनुभव है तभी तो वरना...चल डरता क्यों है। ला मुझे दे दे ये रूपये उधार, मैं लगाता हूॅं तू डरता है तो।''
            मनोज को एक बात याद आ गई उसके चाचाजी ने रेलगाड़ी में कपड े आदि बेचकर ठगी करने वालों के बारे में बताया था एक बार, कि वो डिब्बे (कोच) में घूम-घूम कर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और कपड े को एक-एक टुकड ा दिखाते हैं। भीड  में उपस्थित उसके एजेन्ट ज्यादा कीमत लगाते हैं। और इस तरह करते-कराते जब कपड े के वास्तविक मूल्य से काफी अधिक की बोली कोई अनाड ी बोल देता है तो उसे वह कपड ा थमाकर पैसे हथिया लेते हैं। कभी-कभी इस बात पर काफी झगड ा तक हो जाता है।
            सुधीर पर मनोज के इस भाषण का कोई असर नहीं पड ा तो उसने जेब से पच्चीस रूपये निकालकर उसे दे दिए।
            ''लगाओ-लगाओ और दूने पाओ। पांच के दस, दस के बीस...'' ताश फैंकते-फैंटते वह बोले जा रहा था। लाल कमीज वाले ने भी उत्साहित किया तो उसने हुकुम की पंजी पर पॉंच रूपये लगा दिए। आश्चर्य ! हुकुम की पंजी आ गई। सुधीर को ५ के १० रूपये मिल गए।
            दूसरी बार चिड ी की दुग्गी बताई लाल कमीज वाले ने और सुधीर ने १० का नोट उस पर लगा दिया। इस बार फिर उसका ताश आ गया और उसे १० के २० मिल गए।
            सुधीर काफी उत्साहित था, पर उसका स्टेशन आने ही वाला था। अतः उसने इस बार फिर लाल कमीज धारी से ताश पूछ कर पूरे चालीस रूपये लगा दिए। पर ये क्या ! इस बार उस व्यक्ति का बताया हुआ पत्ता नहीं आया और ताश फैंटने वाले ने सारे रूपये इकट्ठे कर जेब में रख लिए। सुधीर व मनोज खिसियाये से देखते रह गये।
            ''इसने तो जेब ही खाली कर दी इस बार !''
            ''और क्या, लालच का तो यही अंत होता है।'' मनोज ने कहा।
            ''फिर क्या किया जाय अब?''
            ''एक उपाय आजमाते हैं। जैसे ही गाड ी स्टेशन पर रूके, तुम दौड कर सभी साथियों को बुला लाना। मैं तब तक इन लोगों पर नजर रखूंगा।''
            मनोज की इस सलाह पर गाड ी के स्टेशन पर रुकते ही सुधीर अन्य साथियों को बुला लाया। सबने उस ताश फैंटने वाले व लाल कमीज वाले को घेर लिया। पहले तो उन दोनों ने भागने का प्रयास किया, पर इतने लड़कों के बीच से भाग जाने में सफल न हो सके। सामने ही राजकीय रेलवे पुलिस की चौकी थी। मनोज चुपके से जाकर सब-इंसपेक्टर को बुला लाया जिन्होंने तुरन्त ही उन दोनों व्यक्तियों को चौकी में बन्द कर दिया और मनोज को शाबाशी दी जिसकी चतुराई से कुखयात ठग आज उनकी पकड  में आ गए थे, जिनकी उन्हें काफी दिनों से तलाश थी। सुधीर ने भी फिर कभी दूने के लालच में न पड ने की कसम खाई।




                                             जिम्मेदारी
            बगल में बस्ता दबाये, गुस्से में बड़बड ाता हुआ राजू स्कूल से घर को आ रहा था। स्कूल में आज छात्रों को उनका प्रगति-पत्र दिया गया था। राजू भी अपना प्रगति पत्र थामे हुए था। उसने सड क पर खेलते एक बच्चे की जान बचाई थी। उसका तीसरा घंटा खाली था अतः वह सड क पर घूम रहा था। तभी सड क पर तेजी के साथ एक ट्रक गुजरा। अगर राजू उस समय जरा-सा भी चूक जाता तो बच्चे का बुरा हाल होता। इसलिए अध्यापक ने उसके प्रगति-पत्र पर 'उत्तम' लिखा था। देखकर राजू बहुत खुश हुआ। परन्तु जब उसने दो दिन के लिए स्कूल से अपना नाम काटे जाने के बारे में पढ ा तो उसे बहुत हैरानी हुई। कारण जानने के लिए वह प्रधानाचार्य जी के पास पहुँचा-''सर, दो दिन के लिए मेरा नाम किसलिए काटा गया है?''
            उसके तमतमाये हुए चेहरे को देखकर प्रधानाचार्य जी मुस्कराये और बोले-''बेटे, कल अपने पिताजी को बुलाकर लाना, तब बतायेंगे।''
उसे बहुत गुस्सा आया। वह बड बड ाया-''ये भी खूब रही ! एक तो बच्चे की जान बचाई, ऊपर से ये दण्ड !''
            घर पहुँच कर उसने बस्ता रखा और चुपचाप अपने कमरे में जाकर लेट गया। माँ ने खाना खाने के लिए कहा तो , 'भूख नहीं है' कह कर टाल गया। फिर लेटे-लेटे ही उसने सोचा- ''क्यों न पापा के दतर से आने से पहले मम्मी से ही इसका कारण पूछ लूं और ये सोच कर सारी बातें उसने अपनी मम्मी को बता दीं।
            सुनकर मम्मी को हॅंसी आ गई-''अच्छा तो भूख इसलिए नहीं लग रही थी। ऐसा कर, खाना खा ले और शाम को अपने पापा से पूछना इसका कारण।''
            पापा के आते ही राजू ने अपनी समस्या उनके सामने रख दी। सारी बात सुनकर उन्होंने कहा-''हॉं बेटे, तुमने गलती तो बहुत बड ी की है।''
            ''क्या पापा?'' राजू ने आश्चर्य से पूछा। ''तेरी समझ में ऐसे नहीं आयेगा। मैं तुझे एक छोटी-सी कहानी सुनाता हूॅं। ध्यान से सुनना। किसी शहर में एक बहुत बड़ा सेठ था। उसके यहाँ बहुत सारे नौकर-चाकर रहते थे। उन्हीं में से एक रामू नामक नौकर भी था, जिसका काम रात को सेठ जी के बिस्तर के पास खड े-खडे  चौकीदारी करना था। एक बार सेठजी ने तीर्थ-यात्रा का कार्यक्रम बनाया। जब वो चलने के लिए हुए तो रामू चौकीदार ने उसी क्षण टोक दिया और उस गाड ी से जिससे वो जा रहे थे, यात्रा न करने के लिए कहा। सेठ को गुस्सा तो बहुत आया पर कुछ सोच कर उन्होंने यात्रा स्थगित कर दी।
            ''दूसरे दिन सेठ को पता चला कि वही गाड ी जिससे वह कल यात्रा करने जा रहे थे, दुर्घटनाग्रस्त हो गई। सारे यात्री मारे गये। सेठ ने रामू को बुलवाया और पूछा-'तुम्हें कैसे पता चला कि मेरा यात्रा पर जाना ठीक नहीं है?'
            ''सेठजी, रात मैंने एक सपना देखा था। उसी के आधार पर कह दिया था।' रामू हाथ जोड  कर बोला।
            ''सेठ बहुत प्रसन्न हुआ, क्योंकि उसके कारण उसकी जान बच गई थी। उसने रामू को बहुत-सा इनाम दिया, परन्तु उसे नौकरी से निकाल दिया।
            ''अब तुम बताओ कि सेठ ने उसे नौकरी से क्यों निकाल दिया? और रामू को नौकरी से निकाल कर क्या सेठ ने ठीक किया?'' कहानी समाप्त करते हुए पापा ने राजू से पूछा।
            ''बिल्कुल नहीं पापा।'' राजू ने कहा-''बेचारे चौकीदार ने तो सेठजी की जान बचाई थी, और उसे ही नौकरी से निकाल दिया। ये ठीक कैसे हो सकता है?''
            ''सेठजी ने ठीक ही किया था बेटे। सुनो मैं बताता हूं कैसे। रामू ने सेठजी की जान बचाई, अतः उसे इनाम मिला। परन्तु नौकरी से इसलिए निकाल दिया क्योंकि उसका काम जाग कर चौकीदारी करना था लेकिन वह अपनी ड्यूटी पर सो गया, तभी तो उसने सपना देखा। अब तुम्हीं बताओ, जो लोग अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह नहीं निभाते उन्हें क्या सजा मिलनी चाहिए? ''उसी तरह तुमने बच्चे की जान बचाकर तो अच्छा किया जिसका फल भी तुम्हें मिल गया। तुम्हारे प्रगति-पत्र पर मैं ये 'उत्तम' लिखा देख रहा हूॅं। परन्तु स्कूल समय में तुम अपनी पढ़ाई छोड  कर सड क पर क्यों गये? अध्यापक के कक्षा में थोड ी देर से आने या खाली पीरियड होने का ये मतलब नहीं कि तुम ऊधम मचाना या सड क पर टहलना शुरू कर दो। जरा सोचो, यदि तुम्हीं किसी दुर्घटना के शिकार हो जाते तो?''
            राजू की समझ में सब कुछ आ गया। उसने सिर झुकाये फिर कभी ऐसा न करने का वायदा किया।